“वो आख़िरी खत” – एक प्रेम कहानी
साल 1965। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव बेलापुर में एक मिट्टी का घर था, जिसमें रहती थी सावित्री – शांत, गम्भीर, पर बेहद सुंदर और समझदार। वो पूरे गांव में अपनी सादगी और मुस्कान के लिए जानी जाती थी।

सावित्री का हर दिन खेतों में काम, गायों की देखभाल और मंदिर में भजन गाने में बीतता था। लेकिन उसकी दुनिया में एक कोना ऐसा भी था, जो सिर्फ़ राजेन्द्र के नाम था।
राजेन्द्र, गांव के स्कूल में अध्यापक था। पढ़ा-लिखा, सलीकेदार और दिल का साफ़। वो शहर से गांव सिर्फ़ इसलिए आया था क्योंकि उसे गांव की मिट्टी और सादगी से प्यार था। और शायद… सावित्री से भी।
शुरू में दोनों सिर्फ़ एक-दूसरे को दूर से देखते थे। मंदिर के आंगन में जब सावित्री दीपक जलाती, राजेन्द्र चुपचाप अपने दफ्तर की खिड़की से उसे देखता। एक दिन अचानक बिजली चली गई और मंदिर अंधेरे में डूब गया। सावित्री डर के मारे चुपचाप खड़ी थी, तभी किसी ने एक लालटेन उसके सामने रख दी।
“डरिए मत, अब अंधेरा नहीं रहेगा।”
ये आवाज़ राजेन्द्र की थी।
उस दिन के बाद दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं। कभी सावित्री खेत में काम करते वक्त राजेन्द्र को पानी पिलाती, तो कभी राजेन्द्र उसे किताबों की कहानियां सुनाता। ये प्रेम धीरे-धीरे पर गहराई से पनपने लगा।
एक शाम सावित्री ने पूछा,
“राजेन्द्र जी, अगर आप शहर वापस चले गए तो?”
राजेन्द्र मुस्कराया, “जहां तुम हो, वही मेरा शहर है।”
सब कुछ खूबसूरत था, लेकिन हर प्रेम की राह इतनी आसान नहीं होती।
सावित्री के पिता, ठाकुर रामप्रताप, गांव के पुराने सोच वाले इंसान थे। उन्हें ये रिश्ता मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि “लड़की का काम है घर सम्भालना, न कि किताबों वाले मास्टरों के साथ प्रेम करना।”
राजेन्द्र ने पूरे सम्मान से उनका सामना किया, “मैं आपकी बेटी से प्रेम करता हूं और शादी करना चाहता हूं।”
रामप्रताप ने जवाब दिया, “जिस दिन मेरी लाश को कंधा दोगे, उस दिन इसे ब्याहना।”
सावित्री टूट गई। उसने खुद को घर में कैद कर लिया। मंदिर जाना बंद कर दिया। खेतों में जाना बंद कर दिया। और उधर राजेन्द्र, हर दिन एक खत लिखता – अपने प्यार के नाम।
“प्रिय सावित्री,
आज फिर तुम्हारी मुस्कान की कमी महसूस हुई। खेत की मेड़ों पर तुम्हारी चूड़ियों की आवाज़ नहीं गूंजी। जब भी हवा चली, वो तुम्हारे घूंघट को खोजती रही। मैं इंतज़ार कर रहा हूं… तुम्हारे एक जवाब का।
– तुम्हारा राजेन्द्र”
हर खत सावित्री तक नहीं पहुंच पाया। लेकिन उसकी आत्मा हर शब्द को महसूस करती रही।
इसी दौरान भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया। राजेन्द्र सेना में शिक्षक बनकर भर्ती हो गया। जाते वक्त उसने गांव के मंदिर में एक पत्र छोड़ा:
“अगर लौट सका, तो सिर्फ़ तुम्हारे लिए लौटूंगा। और अगर न लौट सका, तो इस मंदिर में मेरा वादा अमर रहेगा।”
तीन महीने बाद, गांव में ख़बर आई – “राजेन्द्र अब इस दुनिया में नहीं रहा।”
सावित्री ने चुपचाप मंदिर जाकर वो खत पढ़ा, जो उसने कभी पूरा नहीं पढ़ा था। वो घंटों बैठी रही। न रोई, न कुछ कहा। सिर्फ़ एक दीपक जलाया और धीरे से कहा – “अब ये दीपक हमेशा तुम्हारे नाम जलता रहेगा।”
उस दिन के बाद सावित्री ने सादा वस्त्र पहनना शुरू कर दिया। उसने खुद को मंदिर, बच्चों की पढ़ाई और समाज सेवा में झोंक दिया। गांव के लोग कहते थे, “उसकी आंखों में कोई उजाला नहीं, पर चेहरे पर अब भी वही शांति है।”
30 साल बाद…
1995 की एक सुबह, गांव के डाकघर में एक पुराना लिफाफा आया। वो खत जो युद्ध के दौरान रास्ते में कहीं अटक गया था।
उस लिफाफे पर लिखा था – “सावित्री के लिए – अगर मैं लौट न सका तो ये खत उसे ज़रूर देना।”
“प्रिय सावित्री,
शायद जब तुम ये खत पढ़ो, मैं इस दुनिया में न रहूं। पर एक बात याद रखना – मेरा हर जन्म तुम्हारे साथ ही हो, यही मेरी अंतिम प्रार्थना है। तुम कभी अकेली मत समझना खुद को। मैं हर दीपक में, हर हवा के झोंके में, तुम्हारी चूड़ियों की खनक में रहूंगा।
तुम्हारा – सिर्फ़ तुम्हारा,
राजेन्द्र”
सावित्री ने वो खत मंदिर में बैठकर पढ़ा। उसकी आंखों से आंसू बहे – तीन दशक बाद। लेकिन इस बार उन आंसुओं में पीड़ा नहीं, प्रेम था।
उसने वो आख़िरी खत मंदिर की दीवार पर लगा दिया – ताकि हर कोई जान सके कि सच्चा प्यार वक़्त से नहीं डरता, हालातों से नहीं झुकता, और मौत से भी नहीं मरता।
सीख:
यह प्रेम कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा प्यार कभी एक पल का नहीं होता, वह जीवन भर साथ चलता है – भले ही लोग साथ न हों, पर दिल और आत्मा जुड़ी रहती है।